मानवता का संकट और जागृति का आह्वान: एक नई व्यवस्था की ओर
मानव अस्तित्व की त्रिभंगी प्रकृति—शरीर, मन, और आत्मा
लेखक कृपा शंकर पांडे,
बेतिया.
भारतीय दर्शन का एक सनातन सत्य है। शरीर के बिना मन और आत्मा की अभिव्यक्ति और प्रगति असंभव है, और शरीर को जीवित रखने के लिए न्यूनतम आवश्यकताएँ—शिक्षा, भोजन, वस्त्र, आवास, और चिकित्सा—अनिवार्य हैं। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि विश्व के किसी भी संविधान में इन मूलभूत आवश्यकताओं की गारंटी नहीं दी गई है, जिसके अभाव में न केवल व्यक्तिगत विकास, बल्कि सामाजिक और नैतिक प्रगति भी ठप हो जाती है।
आज का विश्व दो हिस्सों में बँटा है: एक ओर सुविधाभोगी, जो सीमित संसाधनों का संचय करने में जुटा है, और दूसरी ओर असुविधाभोगी, जो अभाव में जीवन जीने को मजबूर है। इस असमानता ने मानवता को एक गहरे संकट में धकेल दिया है, जहाँ भ्रष्टाचार, शोषण, और सत्ता का दुरुपयोग शांति और प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधाएँ बन गए हैं।
शोषण का चक्र और लोकतंत्र की विडंबना :भारत, जो कभी "सोने की चिड़िया" कहलाता था, औपनिवेशिक शोषण और स्वतंत्रता के बाद के भ्रष्टाचार के कारण अपनी समृद्धि खो चुका है। अंग्रेजों ने इस देश के संसाधनों को लूटा, और जो बचा, उसे राजनेताओं, पूंजीपतियों, और नौकरशाहों के गठजोड़ ने निगल लिया। आज का भारतीय लोकतंत्र, जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम भरता है, वास्तव में पूंजी और सत्ता के गठजोड़ का बंधक बन चुका है। अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने जब गांधी जी से पूछा कि क्या पूंजीपति कांग्रेस की नीतियों को प्रभावित करते हैं, तो गांधी जी का मौन और फिर दुखी स्वीकारोक्ति—“दुर्भाग्यवश यह भी सच है”—आज भी उतना ही प्रासंगिक है। पूंजीपति न केवल चुनावों को फंड करते हैं, बल्कि नीतियों को अपने हितों के अनुरूप ढालते हैं, जिसके परिणामस्वरूप आम जनता के लिए भेजा गया एक रुपया, जैसा कि राजीव गांधी ने कहा था, मात्र दस पैसे में सिमट जाता है।
मूर्धन्य कवि जानकी वल्लभ शास्त्री की पंक्तियाँ इसे और स्पष्ट करती हैं:
“ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,
कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं।”
पुलवामा और पहलगाम जैसी घटनाओं के दोषियों का आज तक पता नहीं चलना, और सरकार का जनता को जवाबदेही से बचना, इस बात का प्रमाण है कि सत्ता का केंद्र जनकल्याण नहीं, बल्कि कुर्सी की रक्षा है। न्यायपालिका, जो लोकतंत्र का अंतिम स्तंभ है, उस पर भी सरकारी दबाव बढ़ रहा है। यह सब एक ऐसी व्यवस्था की ओर इशारा करता है, जो मानवता के मूल उद्देश्य—शरीर, मन, और आत्मा के समग्र विकास—से भटक चुकी है।
जागरूकता: परिवर्तन की पहली शर्त :इस संकट से निकलने का एकमात्र रास्ता है जन-जागरूकता। जब तक आम नागरिक अपने शोषण के स्वरूपों—आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, और सत्ता के दुरुपयोग—के प्रति जागरूक नहीं होगा, कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। आज आम जनता का मन प्रलोभनों और भ्रामक प्रचार में आसानी से फंस जाता है, क्योंकि उसका मानसिक और नैतिक विकास रुक गया है। इस बंधन को तोड़ने के लिए हमें दो प्रकार के आंदोलनों की आवश्यकता है: पॉपुलर मूवमेंट और आइडियोलॉजिकल मूवमेंट।पॉपुलर मूवमेंट का उद्देश्य है जनता को उनके अधिकारों, शोषण के रूपों, और एक बेहतर व्यवस्था की संभावनाओं के प्रति जागरूक करना। इसके लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम अत्यंत प्रभावी हैं। ये नाटक स्थानीय भाषा, संस्कृति, और समस्याओं को केंद्र में रखकर जनता के दिलों तक पहुँचते हैं। ये न केवल मनोरंजन करते हैं, बल्कि विचारों को प्रज्वलित करते हैं। उदाहरण के लिए, भ्रष्टाचार, शिक्षा की कमी, या आर्थिक असमानता जैसे विषयों को नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करके जनता को यह समझाया जा सकता है कि उनकी समस्याओं की जड़ क्या है और समाधान कैसे संभव है।
आइडियोलॉजिकल मूवमेंट का आधार है एक ऐसी विचारधारा, जो मानवता को समग्र विकास की ओर ले जाए। इस संदर्भ में प्रउत (प्रोग्रेसिव यूटिलाइज़ेशन थ्योरी) एक क्रांतिकारी दर्शन है, जो आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय, पर्यावरणीय स्थिरता, और आध्यात्मिक प्रगति को संतुलित करता है। प्रउत का दृष्टिकोण यह है कि संसाधनों का उपयोग सभी के लिए होना चाहिए, न कि कुछ पूंजीपतियों के लिए। यह स्थानीय संसाधनों के विकेंद्रीकृत प्रबंधन और सहकारी मॉडल को बढ़ावा देता है, जो भारत जैसे देश में अत्यंत प्रासंगिक है।
स्थानीय नेतृत्व: परिवर्तन का आधार
परिवर्तन की यह लड़ाई तभी सफल होगी, जब इसका नेतृत्व स्थानीय स्तर से उभरे। बाहरी नेतृत्व, जो स्थानीय समस्याओं और संस्कृति से अनभिज्ञ होता है, जनता का विश्वास नहीं जीत सकता। स्थानीय नेतृत्व को प्रशिक्षित करने के लिए प्रउत के सिद्धांतों पर आधारित कार्यशालाएँ और प्रशिक्षण मॉड्यूल तैयार किए जा सकते हैं। ये मॉड्यूल निम्नलिखित पहलुओं पर केंद्रित हो सकते हैं:
आर्थिक विकेंद्रीकरण: स्थानीय संसाधनों का उपयोग कैसे हो, जैसे कि सहकारी खेती, लघु उद्योग, और सामुदायिक बाजार।
नैतिक और आध्यात्मिक विकास: नेतृत्व को नैतिकता और मानवतावादी मूल्यों से जोड़ना, ताकि वे प्रलोभनों से मुक्त रहें।जागरूकता और संगठन: समुदाय को एकजुट करने और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा देना।व्यावहारिक कदम: एक नई व्यवस्था की ओरपरिवर्तन के लिए कुछ ठोस कदम इस प्रकार हो सकते हैं:नुक्कड़ नाटक अभियान: स्थानीय कलाकारों को प्रशिक्षित करके भ्रष्टाचार, शिक्षा की कमी, और आर्थिक असमानता जैसे विषयों पर नाटक आयोजित करना। ये नाटक गाँवों और कस्बों में नियमित रूप से होने चाहिए, ताकि जनता का जागरण निरंतर बना रहे।सहकारी समितियों का गठन: प्रउत के सिद्धांतों पर आधारित सहकारी मॉडल को लागू करना, जैसे कि सामुदायिक खेती, दूध उत्पादन, या हस्तशिल्प उद्योग। इससे स्थानीय स्तर पर आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ेगी।सामुदायिक सभाएँ: गाँवों में नियमित सभाएँ आयोजित करना, जहाँ लोग अपनी समस्याएँ साझा करें और समाधान खोजें। यह सामूहिक चेतना को मजबूत करेगा।सूचना का अधिकार (RTI): जनता को RTI का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना, ताकि वे सरकारी योजनाओं और संसाधनों के दुरुपयोग को उजागर कर सकें।शिक्षा और प्रशिक्षण: प्रउत के सिद्धांतों पर आधारित स्कूल और प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करना, जो युवाओं को नैतिक, आर्थिक, और सामाजिक दृष्टिकोण से सशक्त करें।निष्कर्ष: एक नई सुबह का आह्वानवर्तमान व्यवस्था—जो भ्रष्टाचार, असमानता, और सत्ता के दुरुपयोग पर टिकी है—मानवता के समग्र विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। भारत का इतिहास हमें सिखाता है कि स्वार्थ और शोषण ने हमें बाँट दिया, चाहे वह देश का विभाजन हो या सामाजिक-आर्थिक असमानता। लेकिन यह भी सच है कि भारत की आत्मा—उसके लोग, उनकी संस्कृति, और उनकी जागरूकता—में वह शक्ति है, जो एक नई व्यवस्था को जन्म दे सकती है। प्रउत जैसे दर्शन और नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम इस जागृति की मशाल बन सकते हैं।हमें यह समझना होगा कि परिवर्तन की शुरुआत हमारी चेतना से होती है। जब हर नागरिक अपनी शक्ति को पहचानेगा, अपने अधिकारों के लिए लड़ेगा, और एक ऐसी व्यवस्था की माँग करेगा जो शरीर, मन, और आत्मा के विकास को प्राथमिकता दे, तभी हम एक सच्चे लोकतंत्र की नींव रख पाएँगे। यह आलेख उस आग को उगलने का प्रयास है, जो जनता की आँखें खोले, उन्हें सोचने को विवश करे, और एक ऐसी दुनिया की ओर ले जाए, जहाँ मानवता का हर आयाम फल-फूल सके।प्रश्न आपके लिए: इस जागृति की मशाल को जलाने के लिए आप अपने स्थानीय समुदाय में क्या पहला कदम उठाएँगे? और क्या आप मानते हैं कि प्रउत जैसे दर्शन को लागू करने के लिए हमें वैश्विक स्तर पर भी एक समन्वित प्रयास की आवश्यकता है?